Editor's PickMust Readएनालिसिसफ्लैशबैक

क्यों भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच अपना पुराना आकर्षण खोते जा रहे हैं?

एशिया कप में भारत के दो मुकाबले क्रिकेट से ज्यादा चर्चा हाथ न मिलाने और अजीबोगरीब इशारों को लेकर चर्चा में रहे हैं। भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच में तनातनी की एक पूरी राजनीतिक पृष्ठभूमि रही है। जिसमें बंटवारा, भारत-पाक युद्ध से लेकर कश्मीर तक के मुद्दे असर डालते रहे हैं। लेकिन,राजनीति से छन-छन कर खेल के मैदान तक पहुंची राइवलरी दोनों देशों में एक राष्ट्रीय उन्माद का रूप तो हमेशा लेती रही है, लेकिन इन सबके बीच भी इस प्रतिद्वंदिता का मुख्य तत्त्व क्रिकेट ही रहा और क्रिकेट प्रेमियों ने भी हमेशा मैदान में खिलाडियों के प्रदर्शन का विश्लेषण किया। वह अलग बात है कि दोनों देशों में राजनीति, बाजार और अन्य दबाव समूहों ने क्रिकेट के उन दिलचस्प मुकाबलों का अपने अपने तरीके से इस्तेमाल किया और उनका लाभ उठाया।

लेकिन, अब वो बात नहीं दिखती। क्रिकेट के खेल का मुकाबला राजनीति और डिप्लोमेसी की शब्दावली का मोहताज हो गया है। भारतीय कप्तान सूर्य कुमार यादव का मैच के दौरान पाकिस्तान टीम से हाथ न मिलाने का फैसला खेल के मैदान के फैसले के बजाय राजनीतिक ज्यादा लगा और इसे खेल भावना के अनुरुप नहीं कहा जा सकता। लेकिन, पाकिस्तान के शहजादा फरमान ने बैट से जो गन सेलिब्रेशन किया, उसने भारतीय कप्तान के फैसले को एक तरह से सही कर दिया और उसे वैधता दे दी।

अब जरा भारत पाकिस्तान के क्रिकेट मुकाबलों पर लौटते हैं। अगर टीवी और ओटीटी प्लेटफार्म के आंकड़ों की मानी जाए तो भारत-पाकिस्तान के मुकाबलों की व्यूअरशिप 90 के दशक के मुकाबले तीन गुना हो चुकी है। अब खेल के लिहाज से देखें तो क्रिकेट प्रेमियों में 90 के दशक वाली बेकरारी क्यूं नहीं दिखती? अब जेहन पर वो लम्हे वैसे क्यों नहीं दर्ज होते? शारजाह कप के 1986 का मैच क्रिकेट जानने समझने वालों के जेहन पर सालों हावी रहा। जब पाकिस्तान को जीतने के लिए एक गेंद पर छह रन चाहिए थे। भारत की जीत तय लग रही थी लेकिन जावेद मियांदाद ने चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का मार दिया और पूरा भारत निराशा में डूब गया। यह खेल की अनिश्चितता और हुनर का तनाव था। इस तनाव से भारत तब उबरा जब 2003 के विश्व कप में सचिन तेंदुलकर ने शोएब अख्तर की एक तेज गेंद पर अपर कट लगा छक्का जड़ा और पूरा भारत खुशी से झूम उठा।

भारत पाकिस्तान के क्रिकेट संबंध हमेशा तनाव में रहे, लेकिन दुनिया के क्रिकेट तंत्र के राजस्व का बड़ा हिस्सा इन मुकाबलों से आता रहा। तो 80-90 के दशक में भी शारजाह जैसी न्यूट्रल जगह भारत-पाक के एक दिवसीय मुकाबलों के लिए मुफीद जगह बन गया।

शारजाह का ही एक और वाकया । 1991 के एक मैच में पाकिस्तान के गेंदबाज आकिब जावेद की लगातार तीन गेंदों पर रवि शास्त्री, अजहरूद्दीन और सचिन तेंदुलकर को एलबीडब्लूय आउट दे दिया गया। तब थर्ड अंपायर नहीं होते थे और मैदान के अंपायर का फैसला अंतिम होता था। लगातार तीन गेंदों पर एलबीडबल्यू के फैसले ने पूरे भारत को नाराज कर दिया और शारजाह की विवादित अंपायरिंग और विवादों में घिर गई। यह कुछ ऐसे ही क्रिकटीय क्षण थे, जिन्होंने आज के टीवी रिव्यू जैसे सिस्टम को जन्म दिया।

तो अब तमाम शोर-शराबे के बावजूद भी भारत पाक के अब के मुकाबलों में अब दिल वैसे नहीं धड़कता जैसे कभी इमरान खान, वसीम अकरम और जावेद मियांदाद वाली टीम के सामने धड़कता था। तनातनियां पहले भी थीं लेकिन, स्मृति के झरोखों से धीरे-धीरे तनातनियां छन जाती थीं और मैदान के वाकये ही याद रहते थे।

विश्व कप के एक मैच में आमिर सोहेल का वेकेंटेश प्रसाद की गेंद पर चौका लगाया और उन्हें गेंद बाउंड्री से बाहर जाकर उठाने का इशारा किया। फिर जब वेकेंटेश प्रसाद ने उन्हें आउट किया तो पैवेलियन जाने का इशारा किया। जावेद मियांदाद के खिलाफ जब तब के विकट कीपर किरण मोरे लगातार अपील कर रहे थे, तब खीझकर मियांदाद मेंढक की तरह उछलने लगे थे, विश्व कप मैच का यह वाकया तो खेल पन्ने की सुर्खियां था। विश्व कप के ही मैच में जब अब्दुल रज्जाक ने सचिन तेंदुलकर का कैच छोड़ा था, तब वसीम अकरम कैसे चिल्लाए थे, वह वाकया आज भी क्रिकेट प्रेमियों को याद ही है।

तो तनातनी तो थी ही, लेकिन उसकी झलक खेल की गुणवत्ता पर खूब दिखती थी। लेकिन, अब खेल की इतर बातें चर्चा में हैं। किसने कैसी बॉलिंग की, कैसी बैटिंग। इस पर नई उमर के क्रिकेट प्रेमी भी चर्चा करते नजर नहीं आते। भारत पाकिस्तान के मैच में आकर्षण इस कदर कम हुआ है कि एशिया कप के मुकाबलों के लिए टिकट न बिकने तक की खबरें भी सामने आईं। ऐसा क्यों हुआ? इसकी एक वजह तो पिछले कुछ सालों से पाकिस्तान क्रिकेट में आई अस्थिरता है। एक समय जब पाकिस्तान के पास इमरान खान और वसीम अकरम जैसे दुनिया के बेहतरीन गेंदबाज हुआ करते थे। कपिल देव भारत में थे। पाकिस्तान की फील्डिंग उस दौर में भारत से बेहतर हुआ करती थी। लेकिन, पिछले 10-15 बरस में दिग्गजों की तुलना में पाकिस्तान के खिलाड़ी भारत के खिलाड़ियों से कमतर ही रहे। मीडिया और एक्सपर्ट ने विराट और बाबर आजम की तुलना खड़ी जरूर की, लेकिन वह कुछ ज्यादा चली नहीं और विराट की बल्लेबाजी और रिकार्ड के सामने ये एक असफल कोशिश भर थी। बीते पूरी दशक में भारत की टीम का ग्राफ उठा है और पाकिस्तान का गिरा है।

आंकड़ों में भारत-पाक मैच

 1978 से 2000 के बीच भारत पाकिस्तान के बीच 81 वनडे मैच खेले गए जिनमें भारत ने 27 और पाकिस्तान ने 47 मैच जीते। यानी पाकिस्तान का पलड़ा भारी था। फिटनेस और फील्डिंग जैसे मामलों में पाकिस्तान टीम भारत पर भारी पड़ता था। 2000 से 2010 के बीच 41 मैच खेले गए जिनमें पाकिस्तान ने 22 और भारत ने 18 मैच जीते। पाकिस्तान अभी भी आगे था, लेकिन भारत अब उसे टक्कर दे रहा था। यही भारतीय टीम में बदलाव और उसके आक्रामक क्रिकेट खेलने की शुरुआत करने का दौर था। इसके बाद कहानी पूरी तरह पलट जाती है। भारत क्रिकेट की शक्तिपीठ के तौर पर उभर रहा था और पाकिस्तान क्रिकेट में गिरावट का दौर था। 2010 से 2020 के बीच भारत पाकिस्तान के बीच 19 वनडे खेले गए और और 13 में भारत जीता और पाकिस्तान के हिस्से में सिर्फ चार जीत आईं। 2020 के बाद से अब तक चार एक दिवसीय मैच खेले गए। जिनमें भारत ने तीन और पाकिस्तान ने एक भी मैच नहीं जीता। यानी अब पलड़ा भारत की तरफ एकतरफा झुका है और जिस राइवलरी की कहानी गढ़ी जाती है, वैसे राइवलरी बची नहीं। टी 20 का रिकार्ड भी भारत की तरफ एकतरफा है। और टेस्ट मैच तो भारत पाकिस्तान ने 2007 के बाद खेला ही नहीं है।

भारत-पाकिस्तान के बीच परंपरागत राजनीतिक तनाव तो घट-बढ़कर वैसा ही है, लेकिन खेल के मैदान पर बराबरी का वो मुकाबला नहीं रहा। ऐसे में अब क्रिकेट के मुकाबलों की चर्चा में भी क्रिकेट कम और डिप्लोमेसी और राजनीति के तत्व ज्यादा दिखते हैँ। हाथ न मिलाने और गन फायर जैसे सेलीब्रेशन पर टीवी पर घंटों बात होती रही है। खिलाड़ियों की मैदान पर हर हरकत का अर्थ निकाला जाता रहा है। सोशलम मीडिया पर ट्रोलिंग का यह हाल है कि लिटिल मास्टर जैसे टाइटल को लेकर भी ट्रोलर्स झगड़ते रहे। एक पाकिस्तानी फैन कह रहा था कि लिटिल मास्टर टाइटल तो पाकिस्तान के महान बल्लेबाज मोहम्द हनीफ का था। भारत के लोगों ने उसे चुरा सुनील गावस्कर को लिटिल मास्टर कहना शुरु कर दिया। जबकि लिटिल मास्टर तो एक उपाधि जैसा था ,जिसे मोहम्मद हनीफ, गावस्कर और बाद में सचिन तेंदुलकर के लिए भी इस्तेमाल किया गया। इन बातों से अंदाजा लगता है कि भारत-पाकिस्तान के मुकाबलों में क्रिकेट कम बचा है और हाइप सिर्फ राष्ट्रवाद और विवादों के जरिए बनाए जाने की कोशिश हो रही है।

राजनीति की अपनी गति होती है और उसके प्रभाव-दुष्प्रभाव खेल पर पड़ते हैं। फिलहाल हम इस बात का इंतजार ही कर सकते हैं कि भारत-पाकिस्तान के मुकाबले खेल के मैदान में दिलचस्पी का सबब बने और जोश में आने के लिए खेल प्रेमियों को राजनीति और उन्माद के सहारे की जरूरत न पड़े। भारतीय उपमहाद्वीप के क्रिकेट के लिए यह जरुरी भी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *