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मुंबई क्रिकेट का और कोलकाता फुटबॉल का गढ़ क्यों बना?

ए टेल ऑफ टू सिटीज : खेल संस्कृति के बहाने दो शहरों का ऐतिहासिक,सामाजिक विश्लेषण 

भारत के पूरब में समुद्र के किनारे बसे कलकत्ता में फुटबाल की दीवानगी है और पश्चिम में बसा बंबई यानी आज का मुंबई क्रिकेट का गढ़ है।…. कैसे बंदरगाह भी यह तय कर देते हैं कि किस शहर में कौन सा खेल खेला जाएगा। क्यों ब्रिटिश काल में कलकत्ता में मोहन बागान के सेमीफाइनल में एक यूरोपीय टीम के हरा देने पर एक बंगाली ने एक अंग्रेज से फिरकी लेने के लिए स्कोर पूछा तो जवाब में उसने एक झापड़ रसीद कर दिया।

हम बात करेंगे इसी बंबई-कलकत्ता की और यहां के खेलों की। खेल संस्कृति की। क्रिकेट और फुटबाल दोनों खेल भारत में अंग्रेज लेकर आए। बंबई और कोलकाता दोनों अंग्रेजी शासन की धुरी रहे। दोनों शहरों में ये खेल अंग्रेजों की सोहबत में फले फूले। और फिर उन्हीं के खिलाफ भारतीयों के संघर्ष का हथियार बने।

लेकिन फिर.. ? फिर क्या हुआ? मुंबई में क्रिकेट का जलवा आप देखते ही हैं और अभी जब फुटबाल का फीफा विश्व कप शुरु होगा तो फुटबाल के दीवानों की तस्वीर कलकत्ता से आएंगी। इसकी कई वजहें हैं। पूरा वीडियो आखिर तक देखेंगे तो बात काफी हद तक साफ हो जाएगी।

कलकत्ता का पड़ाव

तो शुरु करते हैं बात खेलों के इस पूरब-पश्चिम की। अंग्रेजों ने अपने सबसे पहले अपने बड़े एस्टैविलशमेंट कलकत्ता में बनाए। लेकिन, व्यापार करने भारत आए अंग्रेजों ने धीरे-धीरे यहां की राजनीति में हस्तक्षेप शुरु कर दिया। प्लासी के युद्ध से पहले ही राजनीति में दखल और सैन्य हस्तक्षेप के कारण कलकत्ता और यहां के आसपास अंग्रेजी प्रभाव का स्वरूर रेजीमेंटल ज्यादा था। यानी सिविल प्रशासन से ज्यादा अंग्रेजों के सैन्य अधिकारी और टुकड़ियां प्रभावी थीं। कलकत्ता में अंग्रेज खेलते तो क्रिकेट और फुटबाल दोनों ही थे। लेकिन, सैन्य टुकडियों के होने की वजह से फुटबाल ज्यादा खेला जाता था। कम समय में रोमांच और फिटनेस की फिटनेस। जबकि क्रिकेट ज्यादा कुलीन और अफसर लोगों का खेल था। बहुत वक्त भी लेता था। तो ब्रिटिश सैनिकों और उनसे जुड़े लोगों के बीच कलकत्ता में फुटबॉल ज्यादा खेला जाने लगा और कोलकाता में रहने वाले भारतीय भी क्रिकेट के मुकाबले फुटबाल से ज्यादा वाकिफ हुए।

बंगाल की नवाबी का दबदबा घटा, संस्कृति पर मिशनरीज का असर

कोलकाता फुटबाल के कल्चर के पनपने के एक कारण यह भी रहा कि बंगाली की नवाबी का दबदबा घटने के साथ बंगाल और उससे लगे हुए नार्थ ईस्ट के हिस्से में मिशनरी नेटवर्क सबसे अधिक सक्रिय रहा। सेंट जेवियर और प्रेसीडेंसी कॉलेज आप जानते ही हैं। मिशनरीज की चैरिटी वाली संस्थाओं, और शिक्षण संस्थानों में व्यायाम और मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन फुटबॉल ही था। बाद में फुटबाल कोलकाता के स्कूल-कॉलेज तंत्र से होकर काफी हद तक संस्थागत हो गया। और इनमें मिशनरीज की बड़ी भूमिका थी।

कलकत्ता के बंदरगाह पर लेबर- सर्विस क्लास,बंबई में बड़े कारोबारी            

कलकत्ता समुद्र के किनारे बसा शहर था और व्यापार का बड़ा केंद्र था। ढाका की मलमल पूरी दुनिया में मशहूर थी। हुगली पर बने बंदरगाह पर जहाज आया जाया   करते थे। अंग्रेजों ने भी हुगली के किनारे व्यापारिक बस्तियां बनाईं और जहाजों की आमद-रफ्त बढ़ गई। हुगली एक नदी बंदरगाह था और यहां जहाजों से माल उतारने-चढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर मजूदरों की जरूरत पड़ती थी। हिसाब किताब रखने के लिए भी व्यापारियों और शिप कंपनियों में भी बड़े पैमाने पर नौकरी करने वाले लोग थे।

सैनिकों से मजदूर वर्ग का खेल बना कलकत्ता

इस तरह कलकत्ता की बसावट में श्रमिक प्रधान मजदूर और सर्विस क्लास वाले लोग ज्यादा थे और अंग्रेजों से छन छन कर पहुंचे फुटबाल- क्रिकेट में इस वर्ग को नफासत और बहुत सारा समय लेने वाले क्रिकेट के बजाय फुटबाल ज्यादा पसंद आया। कम समय में ज्यादा रोमांच। तो ब्रिटिश सैनिकों के बीच खेले जाना वाला फुटबाल जल्द ही कोलकाता के मजदूर वर्ग का भी खेल बन गया।

बंबई के बंदरगाह में क्या हुआ

अब आप कहेंगे कि बंदरगाह तो बंबई में भी था और भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक बंदरगाह। तो फिर वहां फुटबाल के बजाय क्रिकेट क्यों पनपा। कई फर्क थे। एक फर्क तो बंदरगाह का ही था। बंबई यानी मुंबई का बंदरगाह प्राकृतिक था और वहां बड़े-बड़े जहाज सीधे तट पर आकर लगा करते थे। और उन्हें उतारने चढ़ाने के लिए बॉम्बे के डेक पर मजदूरों की वैसी भीड़ नहीं लगती थी, जैसी कलकत्ता में। बड़े-बड़े जहाजों से एकबारगी ही बहुत सारा माल आता था और बंबई का बंदरगाह वैसा लेवर इंटेसिव नहीं था, जैसा कोलकाता का। दूसरे जब अंग्रेजी शासन के जड़े जमाने के बाद बंबई अर्थव्यवस्था के केंद्र के तौर पर उभरा तो शहर में कारोबारी तबके जैसे पारसियों, गुजराती जैसे कारोबारी तबके शहर में आकर बसने लगे। इनके व्यापार का स्वरूप जरा दूसरा था। आज की शब्दावली में कहें तो कुछ एक्सपोर्ट-इंपोर्ट जैसा। यह यूरोप से माल मंगाकर भारत में थोक के भाव बेचते थे और भारत के माल को यूरोप में भेजते।

बंबई की अंग्रेजियत ने क्रिकेट को संरक्षण दिया

व्यापार को बढ़ाने के लिए ये वर्ग अंग्रेजों का बिजनेस में साझेदार बना और उनके नजदीक आने के लिए उनकी संस्कृति, खेल सबसे जुड़ने लगा। बंबई के आर्थिक केंद्र बनने के बाद जब आयात-निर्यात का प्रमुख केंद्र बना तो अंग्रेज भी भारत में जड़े जमा चुके थे। और सैन्य टुकड़ियों के दबदबे के बजाय के साथ अब सिविल प्रशासन और राजनीति से जुड़े लोगों का दबदबा था। यानी जेंटलमैन आ चुके थे और बंबई में फुटबाल के बजाय क्रिकेट खेला जाने लगा था। अमीर व्यापारियों, अफसरों ने बंबई में क्लब कल्चर को जन्म दिया। क्लब बने, जिमखाने बने। मुंबई के व्यापार जगत में हावी पारसी समुदाय सबसे पहले इन क्लबों से जुड़ा और नफासत पसंद खेल क्रिकेट खेलने लगा। धीरे-धीरे मुंबई के अमीर हिंदू- मुसलमान भी अंग्रेजी रंग-ढंग में आए और अंग्रेजों की नजदीकी पाने के लिए क्रिकेट खेलने लगा।

नफासत बंगाल और कोलकाता में भी थी। लेकिन, नवाबी  और जमींदारी वाली इस नफासत में एक ठसक थी और व्यापार वाला लचीलापन नहीं। इसलिए शुरुआत में कोलकाता शहर की ज्यादा नफासत वाले क्रिकेट के बजाय फुटबॉल से जमी। बंबई के घास के मैदान पर अंग्रजों की नजदीकी पाने के लिए कारोबारी वर्ग ने क्रिकेट खेला तो कलकत्ता के विलियम फोर्ट के पास के मैदान पर कलकत्ता के कामगर तबके ने  फुटबाल खेला।

कैसे फुटबाल प्रतिरोध का औजार बना

खेलों का ये प्रचार प्रसार अंग्रेज शासन के समांतार ही चल रहा था। अंग्रेजों से सीखे खेल खेलकर और फिर उनसे मुकाबला कर धीरे-धीरे यह खेल भारतीय राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रतिरोध का प्रतीक बन गए।

1911 की वो जीत, पहली बार किसी यूरोपीय टीम को कलकत्ता वालों ने हराया

1911 में कोलकाता में मोहन बागान नंगे पाँव खेलते हुए ईस्ट यॉर्कशायर रेजिमेंट जैसी अंग्रेज़ी टीम को हराया, तो यह जीत बंगाली और भारतीय राष्ट्रवाद की प्रतीकात्मक जीत बन गई। कोलकाता की गलियों में यह जीत बांग्ला भद्र लोक  के गर्व का प्रतीक बन गई। भारत के ब्रिटिश समुदाय को इससे कितना झटका लगा,इसे एक वाकए से समझ सकते हैं। सेमीफाइनल में मोहन बागान की जीत के बाद एक बंगाली ने एक अंग्रेज से मजे लेते हुए पूछा कि स्कोर क्या हुआ। जवाब में उसे एक करारा थप्पड़ मिला। मोहन बागान की इस जीत ने बंगाली राष्ट्रवादी क्रांतिकारी धारा के साथ मिलकर कोलकाता और आसपास के इलाकों में फुटबॉल को लोकप्रिय कर दिया और इसे राजनीतिक प्रतिरोध की धारा बना दिया।

जब एक बंगाली ने अंग्रेज से मजे लेते हुए पूछा कि स्कोर क्या हुआ

कोलकाता के उलट बंबई बड़े कारोबारियों और संविधानवादी राजनीतिज्ञों की जगह के रूप में उभरी। बड़े कारोबार के लिए पहले पारसी और फिर उन्हीं की देखादेखी हिंदू मुसलमान व्यापारी भी अंग्रेजों के भागीदार बने और उनकी सोहबत हासिल करने के लिए क्रिकेट खेलना , क्लब जाना, अंग्रेजी बोलना जैसे कामों में माहिर होते गए। संविधानवादी राजनीति भी अंग्रेजों से बातचीत और आंदोलनों के जरिए भारतीयों के हक में आवाज उठाती थी। इस राजनीति में फुटबाल जैसी गरमी नहीं बल्कि क्रिकेट जैसी नरमी थी। इसलिए बंबई के विशिष्ट वर्ग में क्रिकेट को खासा संरक्षण मिला। और फिर धीरे-धीरे छन छन कर क्रिकेट स्कूल कालेजों से होते होते मुंबई यानी बंबई का लोकप्रिय खेल हो गया।

आज की तारीख में कोलकाता में भी क्रिकेट खूब लोकप्रिय है। और ईडन गार्डेन और दादा यानी सौरव गांगुली बंगाल में क्रिकेट का प्रतिनिधि चेहरा हैं। मुंबई में भी अब फुटबॉल खूब खेला जा रहा है। लेकिन, कोलकाता में  फुटबॉल और मुंबई में क्रिकेट ने वहां की खेल संस्कृति में खासी भूमिका निभाई। लेकिन, इन खेलों का फर्क इन शहरों के मिजाज में आज भी साफ देखते हैं।

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